Krishan kishore

इसके बाद आकर्षण जगा
आकाश की तरफ मुंह उठाकर
सितारों से बतियाने का
किसी भी पेड़ से पीठ टिका कर
पत्थरों के चिकने वक्ष सहलाने का,
उन्हें गीत सुनाने का
उनकी छाती पर सर रखकर सो जाने का।
सब की वासनाओं को स्वीकार करने का
घास फूस की तरह
सब को समर्पित हो जाने का।

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उत्तरी अमेरिका के मूलनिवासियों का उन्मूलन– कृष्ण किशोर

  मैं तुमसे जुदा हो रहा हूँ और इस के बाद मेरी चेतावनी भी तुम तक नहीं पहुँचेगी ..... ....कितनी ही बर्फीली ऋतुएं मैंने अपने शरीर पर झेली हैं लेकिन...

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चेखव की कहानी ‘शर्त’ (The Bet) या जीवन दर्शन — कृष्ण किशोर

...एक पतझड़ की अंधेरी रात में एक बैंकर व्यापारी अपने अध्ययन कक्ष में बेचैनी से घूमता हुआ 15 वर्ष पहले का दिन याद करता है। उस के घर एक पार्टी थी। जिस में ऐसे ही एक बहस छिड़ गई कि सज़ाए मौत बेहतर है या उम्र कैद। बैंकर (व्यापारी) मौत की सज़ा को बेहतर मानता है। रोज-रोज मरने से एक दिन मरना बेहतर। एक युवा वकील जैसे कैसे भी जिन्दा रहते चले जाने को ही बेहतर मानता है। दो मिलियन (बीस लाख) की शर्त जोश में आकर व्यापारी लगा बैठा। युवा वकील ने कहा बीस लाख के लिए मैं पांच नहीं, पन्द्रह साल कैद में रहूंगा। शर्तें लिख ली गईं। युवा वकील एक अन्धेरी कोठरी में रहेगा। सिर्फ एक खिड़की से उसे खाना, किताबें, शराब, संगीत का सामान या जो भी वह चाहे, दिया जायेगा।...

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हमारी जिज्ञासाएं और धर्म -कृष्ण किशोर

कुछ जिज्ञासाएं अभी तक अनुतरित हैं। विज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र सभी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं उन विषयों पर अपनी सीमाओं को। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड निस्सीम है। उत्पत्ति, समय काल, सभी धुंध में या उस से भी परे। ज्ञान के जितने भी साधन या वाहक हैं - सिर्फ आँखें मिचमिचाकर रह जाते हैं। ज्ञान का साहस, दम्भ, पाखण्ड कुछ भी नहीं चलता। विवशता भी नहीं है, साधनहीनता भी नहीं। सिर्फ स्वीकारोक्ति है कि हम नहीं जानते। अभी तक नहीं जानते।

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मार्केस -कहानी – ‘बैल्थाज़ार की शानदार सांझ’

....उसने महसूस किया कि वह बहुत थक गया है, एक भी कदम और नहीं उठा सकता। उसका मन किया - एक ही बिस्तर पर दो सुन्दर औरतों के साथ सोने के लिए। वह अब खाली हाथ, खाली जेब था। अपनी घड़ी तक वह दे चुका था, उधार के लिए। अगली सुबह, वह गली में पसरा पड़ा था। उसे लगा था जैसे कोई उसके जूते उतार कर ले जा रहा था लेकिन वह अपने जीवन के सब से सुन्दर सपने को बर्बाद नहीं करना चाहता था...

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मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया- कृष्ण किशोर

मैं हूँ एक बूढ़ा परदेसी और तू है नन्ही सी गुड़िया
कब तक बंद रहेगी मेरे झोले में , अपने घर जा
तू मेरे सीने से लग कर कितनी देर खामोश रही है
अब तो आँख उठा कर कह दे कौन देस तेरे प्रीतम का

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भारत में अस्पृश्यता की स्थिति

अशोक के समय तक यानी बुद्घ के चार सौ साल बाद ब्राह्मणीय कर्मकाण्ड और प्रभुत्व बहुत ढीला पड़ता जा रहा था। मनुस्मृति में प्रतिपादित कड़ी व्यवस्था की ज़रूरत उस समय के धर्म प्रमुखों को महसूस हुई। मनुस्मृति की रचना, वर्णव्यवस्था का कड़ा विधान, धीरे धीरे शूद्रों के लिए अस्पृश्यता में बदलता चला गया। लेकिन यह निश्चित है कि यह एकदम, एक ही समय में, किसी राजाज्ञा जैसी चीज द्वारा घटित होने वाली घटना नहीं रही। एक ही ग्रन्थ से लिखे जाने के तुरन्त बाद यह सामाजिक परिवर्तन हो गया हो, ऐसा भी संभव नहीं लगता।

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लोकतांत्रिक समानता की अवधारणा

...शासनिक प्रबन्धन अंग्रेज़ों ने सिर्फ भय और रौब रुतबा बनाए रखने के लिए स्थापित किया था। वही भय और रौब रुतबा हमारी सभी सरकारों ने जानबूझ कर बनाए रखा है, तोड़ा नहीं। आखिर ये लोग भी सिर्फ शासन ही करना चाहते हैं। भ्रष्टाचार साथ जुड़ जाने से रौब रुतबे में सम्पन्नता की चमक भी आई है। अंग्रेज़ दूर से ही अलग पहचाने जाते थे। इन्हें भी दूर से अलग पहचाने जाने लायक कुछ चाहिए था जो लोगों से इन्हें अलग थलग रख सके। इस पद्घति में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता थी। अफसर सभी देशों में होते हैं। अफसरशाही सिर्फ हमारे यहां है। वे अपनी गोपनीयता और अदृश्यता में दुनिया के सभी ब्यूरोक्रेटस को लज्जित कर सकते हैं।

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Periodical : Being Neutral: Krishan Kishore

Even four legged denizens of our planet or winged life Criss crossing our skies fight each other sometimes, but not without a reason . But a perpetual dislike or hatred among the members of the same species is not the norm.  The reasons that create a wedge between groups and individuals can be as simple as different skin color over which you don't have control and is no fault of yours. Fortunately, our society is almost color blind to this. We are discussing here only those reasons for which we can be faulted, may not be punished. Unfortunately, most evident or non-evident reasons of disharmony are not punishable in any Court of law. Just as we are free to love, so are we free to hate! But this is not even a Love or hate situation. This is rooted in our notion that a group or individual is different..

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वेदना से विमर्श तक–कृष्ण किशोर

बुझने से पहले शम्म भड़कती जरूर है, किस शायर की पंक्ति है याद नहीं। बात जहन में है। मैं  पढ़ रहा था , अपने शीशे के बने हुए कमरे से बाहर देखता हुआ।  पेड़ों के पत्ते लगभग गिर चुके थे । टहनियाँ  निहत्थी होकर हवा में झूल रही थी। मुझे याद है वह सुबह।  एक बड़ा पेड़ मेरे ठीक सामने खड़ा है।  पता नहीं वो मुझे देख रहा है इस वक्त या नहीं।  लेकिन मैं उसे भर्राए गले से धुंधलाई आंखों से एकटक  देख रहा हूं। सारे पत्ते टूट  चुके हैं। जैसे  सारी उम्मीदें टूट गई हों। सिर्फ तीन पत्ते पास-पास टहनियों पर अभी भी झूल रहे हैं। किसी क्षण भी गिर सकते हैं ,यह तीनों पत्ते। देखना चाहता हूं भारी मन से कि एक दूसरे के कितने देर बाद गिरेंगे यह तीनों। मैं कुछ भी न करते हुए अपलक उधर ही देखता हूं ।कुछ देर में हवा का एक झोंका आया ।शीशे के इस तरफ बैठा हुआ मैं नहीं देख  पाया, कितना तेज। यही तो हवा की शक्ति है, वह दिखती नहीं। एक दूसरे से कुछ ही पल की दूरी पर,  मैंने देखा, दो पत्ते टूट कर हरी धरती पर ढेर हो गए। थोड़ी सी बर्फ एक दिन पहले पड़ी थी, अब पिघल चुकी थी। इसलिए मैं दोनों पत्तों को घास पर पड़े देख सकता था। तीसरा  पता भी गिरेगा किसी भी क्षण। नहीं देखना चाहता था वह क्षण। मैं उठ कर वहां से चला गया। ..

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यात्रा भाग 4-5 कृष्ण किशोर

 कुछ देर मौन और स्थिर रहे
वह मौन मुझे सुन रहा था
एक  अंधड़ के आने से पहले का सन्नाटा
जैसे सुना जा सकता है 
मैं उसे देख रहा था, वह मुझे नहीं

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जो कुछ साथ चला आया था

..जो घटा ही नहीं
बाहर  खड़ा पीटता रहेगा आत्मा का द्वार
या किसी तेज घूमते वृत्त के केंद्र में
एक बड़े गोल सुराख की तरह
उगलता रहेगा आग
धरती का सूरज से छिटक कर अलग होना भी
क्या ऐसे ही हुआ था।

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यात्रा – भाग ३ — कृष्ण किशोर

मुझे देखते हुए उसका उठ खड़ा होना
मौसम बदल जाने जैसा लगा
सारी बर्फ एकदम पिघल जाने जैसा लगा
रातों-रात पेड़ों के पत्तों से भर जाने जैसा
नदी का उछल कर
किनारों की चट्टानों से लिपट जाने जैसा
वस्त्रों से बाहर आकर
पूर्ण समर्पण जैसा

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यात्रा भाग १ और २ – कृष्ण किशोर

आधी सी आवाज में मैंने पूछा
 कब से यहां हो, इसी तरह
पेड़ के भीतर उगा हुआ पेड़ जैसे
जन्म के बाद पहली बार
कुछ बोला तो उस मटियाली आकृति ने जैसे
आवाज में हरे पत्तों की महक ने
मुझे इस तरह से सहलाया
जैसे पानी को छू कर आई हो
गर्म दिनों की उमसाई हवा

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ग़ज़ल

कोई तो देख कर कह दे कि तू वही सा है
कोई तो आँख हो नम देखकर तेरा दामन

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बगावत

जब तेरे शोख झरोखों पे नज़र उठती है
उठने लगता है धुआं दिल की स्याह बस्ती से
और पसे पर्दाए-तस्वीरे जफा उस वक्त 
कांप उठाती है हवा तेरी सितम दस्ती से

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लोकतन्त्र की अवधारणा, वस्तुस्थिति और संभावना- कृष्ण किशोर

लोकतन्त्र केवल एक राजनीतिक प्रबन्धन नहीं है। जब तक हमारी दैनिक व्यावहारिक सोच का लोकतांत्रिक आधार पैदा नहीं होता, तब तक हमारी राजनीति का आधार भी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। लोकतन्त्र की अवधारणा हमारी मानसिकता और सामाजिक मूल्यों में निहित अधिक है। इन दोनों की अनुपस्थिति में लोकतन्त्र केवल एक संवैधानिक प्रस्तुति और औपचारिकता बन कर रह जाता है। व्यावहारिक स्तर पर उसे अपनाने और लागू करने के लिए जोर जबरदस्ती का सहारा लेना पड़ता है।

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Kafka and Camus- Krishan Kishore

...काफ़्का के The Trial (1925) से कामू के The Stranger (1942) तक की यात्रा एक कोहरे में दफ़्न घाटियों में यात्रा जैसी है। आंखों के सामने का कोहरा छंटता नहीं और चलना ज़रूरी है। यात्रा ज़रूरी है। ठीक ग़लत कुछ नहीं, बस ज़रूरी।..

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About Anyatha Dialogue

..On the pages of this website, our visitors will wander in its hills and valleys of lofty poetry, soak themselves in intellectual and thoughtful essays -analyzing and synthesizing different aspects of issues that engage us now and always. These are open thoughts without reaching stone hard conclusions..

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Slums- Krishan Kishore

....पेरू के एक राजनीतिज्ञ/अर्थशास्त्री अपने नये तर्क के साथ प्रस्तुत हुए थे। मेक्सिको, ब्राज़ील और लेटिन अमेरिका के कई देशों में उन की योजना को लागू भी किया गया। वह अर्थशास्त्री हैं Hernando De Soto। अरनान्डो डी सोटो कहते हैं कि प्रत्येक झोपड़पट्टी वाले की झोपड़ी को उस की सम्पत्ति मान कर उसे स्वामित्व का पट्टा दे दिया जाये। यानी वे अपनी झोपड़ी के कानूनी मालिक। टैक्स भी वे शहर को देंगे..

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Where did Aryans come from- Krishan Kishore

...हमारे आज के इतिहासकारों ने इस बात को काफी प्रामाणिक ढंग से कहा है कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए। खासतौर पर सरस्वती नदी (घग्गर-पंजाब, हरियाणा, राजस्थान) की खोज और पुर्नस्थापना के बाद। वे यहीं के मूल निवासी थे और तरह तरह के रंगों, शक्लों और धार्मिक विश्वासों वाले अन्य मूलनिवासियों के साथ रहते थे..

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इतिहास-साहित्य सही इतिहास भी है और साहित्य भी:अश्वेत साहित्य -कृष्ण किशोर

Color Purple प्रतीक बन गया है- एक चिन्ह- जिसे काले, गोरे, पीले अमरीकी अपनी विविधता का स्मृति चिन्ह मानकर पहने रखते हैं । काले अमरीकीयों की भाषा में लिखी गयी यह गाथा विशाल जनसमु दाय के अंत: स्थल पर बिछे हुए कूड़े करकट को उलीच उलीच कर धरातल पर लाती है ।  गुलामी से पैदा होने वाली तमाम विकृतियां , हीन मानसिकता की स्थितियां,  पारिवारिक मूल्य रिक्तता  और पुरुषों की नृशंस पाशविकता, और ऐसे जीवन की दिशाहीनता  से पैदा होने वाली असंगतियां एक साथ इस उपन्यास में मिलती हैं ।काले अमेरिकियों ने पहले पहल इस आईना दिखाती हुई कृति का विरोध किया था। लेकिन वास्तविकताएं बाहरी समर्थन के अभाव में भी अपने आपको स्थापित करती हैं। 

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Periodical- Krishan Kishore-

एक  सुनियोजित रूप में वर्ण के आधार पर, नस्ल के आधार पर दैनिक अत्याचार, आक्रमणकारियों द्वारा जीते हुए प्रदेशों से मूल निवासियों का सर्व -विनाश कोई ऐसी घटनाएं नहीं है- जिन्हें केवल ऊपरी विवरणों से, छुटपुट झलकियों से, या सहानुभूतिपूर्ण दया धर्म से प्रेरित अश्रु प्रवाह  से,  काली पीली शब्दों की लकीरों से बयान किया जा सके।  इतिहास के ऐसे समय हैं जहां इतिहास की पुस्तकों ने इतना भी नहीं छुआ कि उस दर्द की मध्यम सी आहट की आस पास की हवा को उद्वेलित करती। यह काम उन साहित्यकारों ने किया जिनकी वजह से आज इंसानियत का चेहरा शर्म से लाल हो जाता है।

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कृष्ण किशोर जी से कुछ प्रश्न

अंग्रेज़ी पढ़ाना मुख्यत: आजीविका से संबंधित था। भारत में भी, और यहां अमेरिका में भी। भाषा और साहित्य पढ़ना एक अलग अनुभव होता है। विश्वविद्यालयी माहौल में जब हम अंग्रेजी साहित्य के छात्र थे, तब लगता था- धरती से आकाश तक ,कण-कण में शब्दों ,ध्वनि और उनके अर्थों की गूंज ही जीवन का सार है। तब भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य में ही मन अधिक रमता था, हालांकि अंग्रेजी भाषा में पढ़ा जाने वाला साहित्य  ही प्रमुख था। 

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यात्रा-1

निस्पंद और आहत होने के लिए
एक विशेष दिन चुना था क्या उसने
या बस यूं ही दमकते सूरज से गरमाए आकाश की तरफ देखते हुए
घर से निकलना
और सांझ ढले वापस न आना

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सम्पादकीय कविता के क्षितिज- –  कृष्ण किशोर

कविता का सत्य कभी-कभी सत्य न होकर भी सत्य होने का आभास रचता है।  जैसे क्षितिज सत्य होने का आभास देता है ,लेकिन सत्य है नहीं। हम स्वीकार करके उसे आत्मसात करते हैं ।यह केवल कविता का प्रसाधन मात्र नहीं है। ऐसे कितने ही क्षितिज- सत्यों का सहारा लेना पड़ता है ,कविता को अपनी बात कहने के लिए । लेकिन इन सब अनुभवों के पीछे अगर कोई ठोस मानवीय संदर्भ नहीं है तो मात्र प्रसाधन को हम स्वीकार नहीं करते । जीवन का सत्य अगर कंटीले झाड़ -खंखाड़ के जंगल जैसा होता है, तो कविता का रूप भी उसी तरह कटीले झाड़ खंखाड़  के बन की तरह हो जाता है। हमारी हिंदी कविता में एक ऐसा समय रहा है जब किसी विशेष विचार मानसिकता के तहत  झाड़ खंखाड़ वनों की  सिर्फ कागजी पेंटिंग की गई। वहां सिर्फ रंग थे ,लहू की एक बूंद भी नहीं थी। इसीलिए उस तरह का विचार आलाप ज्यादा देर टिका नहीं।

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नई तरह का बाबू कल्चर- कृष्ण किशोर

....हमारे देश और समाज की असली शक्ति उत्पादन केन्द्रों में है - चाहे वे कारखाने हों या खेत या स्कूल। उन्हीं के बल पर हम आज बहुत कुछ निर्यात करने की स्थिति में पहुंचे हैं। दूसरे देशों की फाईलों का रोकड़ा तैयार करने की मुनीमगिरी से कुछ परिवारों में थोड़ा धन ज़रूर आ रहा है, लेकिन एक बड़ी कीमत पर। काम संस्कृति एक विकास-संस्कृति होनी चाहिए, हास-संस्कृति नहीं। संकीर्ण और दृष्टि विहीन सम्पन्नता मानसिक विपन्नता की ओर ले जाती है।...

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A prayer from the living– बेन ओकरी की सांस्कृतिक आतंकवाद और भुखमरी की एक कहानी

....कैमरों के फ्लैश थे। दो एक पत्रकार थे। उन्हें देख कर वह मुस्कुरा दी। मरने से पहले की अपनी आखिरी हंसी। छोटी सी कहानी समय के गर्त में ले उतरती है। गर्त का अंधेरा कहानी के प्रकाश से जगमगा उठता है।...

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Periodical- धर्मोन्माद – कृष्ण किशोर

दुनिया के सब से बड़े धर्म ईसाइयत का शुरुआती इतिहास ऐसा रहा है जैसे किसी क्रूरता के खिलाफ जन-आंदोलन का इतिहास होता है। गरीब या निचले तबके के लोगों ने ऊपर वाले तबकों से लड़ कर ईसाइयत का आधार रखा। पिछले गरीब देहाती किसानों ने बड़े ताल्लुकदारों, जमींदारों से मुक्ति का स्वप्न ईसाई एकता में देखा। लेकिन सत्ता आते ही, राजाओं का धर्म बनते ही, पादरियों की फौज के हत्थे चढ़ते ही, महाराजाओं के महाराजा पोप ऑफ़ रोम का स्वर्ण सिहांसन बनते ही - युद्घ, जीत-हार और नरसंहार का इतिहास शुरू हो गया जो अब तक जारी है।

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Periodical – 5/2023 Krishan Kishore

....जितना अशिक्षित, गरीब और अस्वस्थ समाज होगा, उतना ही लोकतांत्रिक प्रशासन का भय सर्वव्यापी होगा। हमारे समाज में भी सरकारी संस्था एक भय-पीठ बनकर लोगों को अपने से दूर रखने में महारत रखती है। चुने हुए प्रतिनिधि दिखने में भी लोगों जैसे दिखना बन्द हो जाते हैं। वे अलग ही, सत्त्ता स्वरूप हो जाते हैं।..

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